ऐसा लगता है कि इस संसार में हम अनजाने ही प्रकट हो गए और विभिन्न कारणों से इसमें रम गए। हमें यह संसार इतना पसंद आने लगता है कि हम हर संभव तरीके से जीवन को बनाए रखना चाहते हैं, जब से हम इंद्रियों का उपयोग करना सीखते हैं तब से इस शरीर को ही मैं मानने लगते हैं और पांचों इंद्रियों – आँख, नाक, कान, जिह्वा एवं त्वचा द्वारा आनंद ढूँढने लगते हैं।
स्वाभाविक रूप से हमें आनंद के लिए अन्य प्राणियों अथवा वस्तुओं की आवश्यकता होती है। अतएव हमारी दूसरों पर निर्भरता बढ़ती है और यह पर-निर्भरता मन में कृपणता एवं खिन्नता के भाव पैदा करती है।
जिस प्रकार हमारा जन्म हुआ उसी प्रकार मृत्यु भी अंजाने ही आ जाती है। मृत्यु भला क्यों हमारे जीने की चाह की परवाह करने लगी, वह तो बस आ जाती है। जीवन भर जिस शरीर को हम अपना मानते रहे और इसकी साज-सज्जा तथा रक्षा में लगे रहे उसे मृत्यु अनायास ही छीन लेती है।
जीवन के उपरोक्त दो पहलू (जन्म तथा मृत्यु की घटनाएँ) हमारे शाश्वत आनंद एवं अमरत्व की इच्छा से संबन्धित हैं। प्राचीन काल से मानव इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के तरीके खोजता रहा है। बुद्धिमान पुरुषों ने इन दोनों इच्छाओं की पूर्ति हेतु निश्चित किया है कि दिव्य प्रेम द्वारा आनंद एवं आत्मज्ञान द्वारा अमरत्व की प्राप्ति होती है।
प्रेम क्या है? किन्हीं दो प्राणियों के मध्य निम्नलिखित तीन स्थितियाँ संभव हैं –
1. एक प्राणी दूसरे को बिना अपेक्षा के देता ही देता है।
2. दोनों के मध्य संबंध लेन-देन पर आधारित है।
3. एक प्राणी दूसरे से लेता ही लेता है, कभी-कभी बिना स्वीकारोक्ति के या अधिकार भाव से।
2. दोनों के मध्य संबंध लेन-देन पर आधारित है।
3. एक प्राणी दूसरे से लेता ही लेता है, कभी-कभी बिना स्वीकारोक्ति के या अधिकार भाव से।
प्रथम स्थिति में प्रेम आनंद का आधार बन जाता है तथा दूसरी स्थिति में दोनों के मध्य व्यवसायिक प्रेम है जिसमें दोनों अपने-अपने स्वार्थ में रत रहते हैं। तीसरी स्थिति में तो स्वार्थ ही स्वार्थ है और अंत में इस संबंध में असंतुष्टि पैदा हो जाती है।
सच्चे आनंद को पाने की तरकीब यह है कि सभी से हमारा प्रेम दिव्य भाव की श्रेणी का हो। इसके लिए भेदभाव की सभी दीवारें (धर्म-संप्रदाय, जाति-पांति, धन-दौलत, स्त्री-पुरुष आदि) गिराना आवश्यक है। इसके लिए पढे-लिखे होने की आवश्यकता नहीं है (जैसे संत कबीर)। बस इसके लिए तो सभी परिस्थितियों में सहनशीलता की काफी आवश्यकता है क्योंकि उसके समुदाय के लोग ही उसके विरुद्ध हो जाते हैं और उनसे कटाक्ष एवं दुःख प्राप्त होने की संभावना रहती है।
प्रायः ऐसा व्यक्ति मानव सेवा अपना लेता है जो कि दिव्य आनंद का स्रोत है।
जहां तक अमरत्व का प्रश्न है वह इस शरीर का नहीं होता क्योंकि जन्म से ही इसमें परिवर्तन होता रहता है। इस शरीर की शुरुआत है तो इसका अंत भी, जब यह काया ध्वस्त हो जाती है। किन्हीं विधियों द्वारा शरीर के अस्तित्व को तो बढ़ाया जा सकता है पर यह अमर नहीं हो सकता। यह तो आत्मा है जो कि शाश्वत है। इसको आत्म अनुसंधान द्वारा निम्नलिखित दो विधियों द्वारा जाना जा सकता है –
1. एक अमर तत्व जो इस शरीर में मौजूद है तथा जिसकी तुलना संसार में किसी से भी नहीं की जा सकती। वह तत्व जीवित-अजीवित सभी में समाया हुआ है। इसको योगाभ्यास द्वारा मन में मूर्तिमान किया जा सकता है परंतु इसमें सफलता की कोई समय-सीमा नहीं है।
2. आत्मज्ञान बिना इच्छा के या तो प्रभु कृपा से अथवा पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण हो सकता है। यह किसी भी तरह हो साधक स्पष्ट रूप से अपनी आत्मा को अमर तथा अपरिवर्तनीय समझ जाता है।
आत्मा-दर्शन में हम कुछ देखते नहीं हैं क्योंकि हमारी इंद्रियाँ उस समय उपस्थित नहीं होतीं। अतएव इसके वर्णन करना असंभव ही है। लेकिन, इसके गुणधर्म भगवान से मेल खाते हैं जिसका वर्णन संसार के सभी धर्मों में मिलता है।
भगवान एवं आत्मा के बीच के संबंध की तुलना सूर्य एवं उसकी किरणें, समुद्र एवं उसकी लहरें, आदि से की जा सकती है। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे से मान सकते है।
भगवद भक्ति के तीन सोपान हैं – बुद्धिमानी, दृढ़ संकल्प एवं आश्रय। अपने अनुभव तथा दूसरों के अनुभवों से हम बुद्धिमानी बढ़ा सकते है। यदि किसी बच्चे को नितांत एकांत में रखा जाये तो वह न तो कोई भाषा बोल पता है और न ही व्यावहारिक ज्ञान सीखता है। अतएव हमें ऐसे अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण की आवश्यकता होती है जिसमें हम कुछ सीख सकें।
कोई भी आध्यात्मिकता या सांसरिक घटना का तात्पर्य हम अपनी बुद्धि से लगाते हैं जो कि आंशिक ही होता है। निरपेक्ष सत्य हमारी बुद्धि तथा ज्ञान से परे है।
अतएव अपनी रुचि के क्षेत्र में अधिक जानकारी के लिए हमें बुद्धिमान के पास जाना चाहिए और इससे दोनों को लाभ होता है। चूंकि अध्यात्मिकता सांसारिकता के विपरीत है अतः उचित समय पर भगवान साधक को मार्गदर्शक से मिलाता है। सच्चे साधकों का मार्गदर्शन करना एवं इस प्रक्रिया में विश्वास जमाना इनका मुख्य कार्य होता है।
जब तक हमें ऐसा मार्गदर्शक नहीं मिलता तब तक हम अपने हृदय से बुराइयों को हटाते रहें और बाकी भगवान पर छोड़ दें। भगवान या उसके प्रतिनिधि में तात्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं है, सिर्फ नाममात्र का है।
इससे सिद्ध होता है कि अस्तित्व का उद्देश्य भक्ति द्वारा प्रेम के प्राप्ति तथा आत्मज्ञान द्वारा अमरत्व की प्राप्ति इस जीवन के प्रमुख उद्देश्य हैं।
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